Friday

हमारी निशानी हैं ये चाँद साँसें, इन्ही के सहारे कारवां ज़िंदगी के...


 
अजब है ये सफ़र जिंदगानी,
हम आये अकेले, औ' तनहा चले हैं|
ये कैसा निराला चलन है यहाँ का,
हम आये हैं रोते, रुला कर चले हैं||

ये कैसा अनोखा अजब सा है मेला,
न कोई है तेरा, न तू है किसी का|
मगर फिर भी लगता है, हम सब बंधे हैं
किसी डोर से है ये रिश्ता सभी का ||

ये लगता है जैसे जहां है हमारा,
हम्हीं ने ज़मीं आस्मां है बनाए|
हमारे ही दम से है रौनक यहाँ की,
हम्हीं ने यहाँ चाँद तारे सजाये||

हमारे ही दम से है ठंडी हवाएं
खिली शोख कलियाँ, चमन मुस्कुराये|
ये कोयल की मस्ती, पपीहे के नगमे,
यहीं बादलों ने ही मोती लुटाये|| ...

ये समझे थे हम हैं खुदा इस ज़मीं के,
न समझे की हम हैं मुसाफिर यहाँ के|
हमारी निशानी हैं ये चाँद साँसें,
इन्ही के सहारे कारवां ज़िंदगी के||

Thursday

जीवन सफ़र






ज़िन्दगी के सफ़र में अकेली चली,
हमसफ़र तुम न जाने कहाँ खो गए|
मुड़ के देखा तो सूनी डगर थी मगर,
इक अजब सी महक मेरी राहों में थी|
तेरे क़दमों की आहट फिज़ाओं में थी||

कस्में-वादे किये थे इन्हीं राहों में,
हमने नग्में सुने थे इन्हीं छाहों में|
तेरी पर्छायाँ तो मेरे साथ हैं,
पर तुम्हीं इस डगर में कहीं खो गए||

ये कैसा नशा मेरी साँसों में है,
जो तुझे मैं कभी भूल पाती नहीं|
ज़िन्दगी की अँधेरी डगर में तेरे,
प्यार की रौशनी झिलमिलाती रही||

तेरी बाँहों का बंधन, मेरे हमसफ़र,
सहारा बना है इस मझधार में|
ये कैसा अनोखा सा बंधन प्रिये,
जो नहीं टूट पाया है संसार मैं||

तू जहाँ भी कहीं है मेरे हमसफ़र,
मेरे स्वप्नों की छाया तेरे प्यार की|
चाहे कुछ भी करून, मैं कहीं भी रहूँ,
एक सिहरन सी है तेरे अहसास की||

तेरी साँसों की गर्मी मेरी सांस में,
तेरे प्राणों की ठंडक मेरे प्राण में|
जहां की नज़र से भले तुम छुपो,
पर हो मेरी नज़र के सदा सामने||
- on A.I.R - Sept 10th, 1996
(Papa had expired in July '94, just a few months short of what would have been their 50th wedding anniversary)

Saturday

हमारी निशानी हैं ये चाँद साँसें, इन्ही के सहारे कारवां ज़िंदगी के||

This was one of the last poems of Amma/Dadi, who left for another prophesy on Aug 23rd, 2012.

अजब है ये सफ़र जिंदगानी,
हम आये अकेले, औ' तनहा चले हैं|
ये कैसा निराला चलन है यहाँ का,
हम आये हैं रोते, रुला कर चले हैं||

ये कैसा अनोखा अजब सा है मेला,
न कोई है तेरा, न तू है किसी का|
मगर फिर भी लगता है, हम सब बंधे हैं
किसी डोर से है ये रिश्ता सभी का ||


ये लगता है जैसे जहां है हमारा,
हम्हीं ने ज़मीं आस्मां है बनाए|
हमारे ही दम से है रौनक यहाँ की,
हम्हीं ने यहाँ चाँद तारे सजाये||

हमारे ही दम से है ठंडी हवाएं
खिली शोख कलियाँ, चमन मुस्कुराये|
ये कोयल की मस्ती, पपीहे के नगमे,
यहीं बादलों ने ही मोती लुटाये||

...ये समझे थे हम हैं खुदा इस ज़मीं के,
न समझे की हम हैं मुसाफिर यहाँ के|
हमारी निशानी हैं ये चाँद साँसें,
इन्ही के सहारे कारवां ज़िंदगी के||

(Last year, I had tried to entice her to recite this poem, so that I can video-record it. She recalled part of it....



http://youtu.be/1R9_J8e1REI

माँ, सुना दे वो बालपन की कहानी

मुझे याद आती है बातें पुरानी,
माँ, सुना दे वो बालपन की कहानी |

जवानी की तपती हुई ज़िन्दगी में,
कहाँ से ये ठंडी हवा आ रही है |
उलझन भरी सूनी रातों में कोई,
मीठे स्वरों में लोरियां गा रही है |
वो ममता की तस्वीर भूली पुरानी,
माँ, सुना दे वो बालपन की कहानी |

खुली नदियों में उछलना मचलना,
नदिया किनारे की रेती में चलना |
चंदा में परियों की रानी का दिखना,
मूझे याद आता है तुझसे चिपकना |
तू सुनाती थी जब चांदनी में कहानी,
माँ, मुझे याद आती है वो जिंदगानी |

मुझे आज फिर से  वो दिन लौटा दे,
माँ बालपन की कहानी फिर से सुना दे |