हम हँसते है, तुम रोते हो,
हम झूम रहे तुम सोते हो.
यह जीवन चार घड़ी का है,
क्यूँ अनजाने में खोते हो...
आओ उतरो उस मंजिल से,
जग में आओ,कुछ काम करो.
धरती के दीपक बन कर तुम,
हंस-हंस निज तन बलिदान करो...
यदि तुमने जल कर एक कुटी
को भी प्रकाश की रेखा दी.
तो कितने प्राणों में तुमने,
जीवन की ज्योति झलका दी...
...आओ उतरो उस मंजिल से,
जग में आओ,कुछ काम करो.
***
इसी जलने जलाने में, हमारी रात कट जाती,
सखी, चंदा सुलाने में, हमारी रात कट जाती।
कभी आती है तेरी याद,
दिल में कसक सी उठती।
सुलगती आग सीने में,
ज्यों घन में दामिनी चमकी ॥
चमकता चाँद जब नभ में
धरा क्यूँ आग सी जलती।
सखी, पीड़ा बुझाने में हमारी रात कट जाती,
हमें चंदा सुलाने में अकेली रात कट जाती॥
ये सूनी सी अजब घड़ियाँ,
तुम्हारे गीत मनमाने।
कोई समझे तो क्या समझे
क्यूँ जल जाते हैं परवाने॥
ये कैसी रीत, कैसी प्रीत,
कैसे गीत अनजाने।
कि जिन गीतों को गाने में हमारी रात कट जाती,
हमें चंदा सुलाने में अकेली रात कट जाती॥
बुझी आशा धड़कता दिल लिए,
मैं द्वार खोले हूँ।
लिए नैय्या किनारे पर
खड़ी, पतवार खोले हूँ॥ भंवर सा घूमता है मन, कहीं थक कर न सो जाऊंतेरे आने ही जाने में, ये सारी रात कट जाती,हमें चंदा सुलाने में हमारी रात कट जाती॥कभी आती सखी, पूनम,मेरे हर अंग में सोना।धरा पर हूँ पड़ी रहती,लिखा है भाग्य में रोना॥यह कैसी प्रीत दीवानीचकोरी चाँद को देखे।इसे राका रिझाने में, नवेली रात कट जाती।सखी, चंदा सुलाने में हमारी रात कट जाती॥कहूं क्या ये तेरी पीड़ा,बड़ी चंचल हठीली है।ये मेरे प्यार की दौलतही अब दिल की सहेली है॥कभी जब तू नहीं मिलतायही तो साथ खेली है।इसे झूला झुलाने में, हमारी रात कट जाती।सखी, चंदा सुलाने में हमारी रात कट जाती॥(AIR से ७.५.९५ को प्रसारित)****
धरती से आकाश, गगन से धरती कितनी दूर,मिलते नहीं विचार, मिलन का इसमें कौन कसूर...सरिता नें सागर को कर दीअर्पित रूप जवानी।किन्तु ना हो पाया सागर काखारा मीठा पानी।तन से कितने पास मगर हैं मन से कितने दूर,मिलते नहीं विचार, मिलन का इसमें कौन कसूर...नदिया के दो कूल किनारे,साथ-साथ चलते रहते हैं।एक राह है, एक है मंजिल,अलग-अलग लेकिन रहते हैं।मन से दोनों साथ-साथ हैं, तन से कितने दूर,मिलते नहीं विचार, मिलन का इसमें कौन कसूर...***
Amma had written this poem on August 15, १९४७... and what a day it must have been to have lived in!:
ओ स्वतंत्रता के शुभ प्रभात
तेरे स्वागत को आज तात,
प्रस्तुत है भारत का समाज।...
कुछ चाह लिए, उत्साह लिए,
सुखमय जीवन की आस लिए,
कुछ प्यास लिए, विश्वास लिए,
उत्सुक हैं कितने नयन आज,
आ आ स्वतंत्रता के प्रभात।...
आज प्रकृति कितनी चंचल,
ये माँ का हरियाला आँचल,
लहराता है क्षणक्षण प्रतिपल,
तन पुलक रहा, मन झूम रहा,
भारत स्वतंत्रता चूम रहा,
कैसा स्वदेश प्रत्फुल्ल आज,
आ आ स्वतंत्रता के प्रभात...
ये कौन जा रहा है जो
उदास है कली, कली...
यह हवा ये शाम भी
क्यूँ आज है घुटी, घुटी।
चाँद की भी चांदनी
क्यूँ आज है छुपी छुपी।
खामोश हैं क्यूँ महफ़िलें,
वीरान सा चमन पड़ा...
...ये कौन जा रहा है जो, उदास है कली, कली...
क्यूँ बेसुरी सी बीन है,
न ताल है, न राग है।
कांपती हैं उंगलियाँ,
औ' तड़पते ये तार हैं॥
यह दूर कोई गा रहा,
या तड़पती है रागनी...
...यह कौन जा रहा है जो, उदास है कली, कली...
आसमान के मेघ भी,
यूँ उड़ रहे इधर उधर।
दिल में छुपाये आग वो,
यूँ जा रहे किधर-किधर।
ढूंढती गली-गली, भटक रही है चांदनी
..ये कौन जा रहा है जो, उदास है कली-कली...
यह महफ़िलों की रौनकें,
ये कहकहे, वो फब्वियाँ।
वो शायरों की बानगी,
सरदार की कहानियां।
तेरी गली, वो चुटकुले,
है गूंजते गली-गली...
...ये कौन जा रहा जो, उदास है कली-कली...
जा मुबारक हो तुझे, तेरा सफ़र, तेरी गली।
हम करेंगे याद तेरी,
वो हंसी, जिंदादिली।
अलविदा, जा कर करो,
आबाद तुम अपनी गली...
...ये कौन जा रहा है जो, उदास है कली-कली....
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